भारतीय परिवेश में भाषा, समाज, संस्कृति और शिक्षा का
अन्त:संबंध
(Co-relation between Society, Language, Culture and
Education in Indian Context)
कांबले प्रकाश अभिमन्यु, सुमेध हाडके, जे.एन.यू.नई
दिल्ली
भारत स्वतंत्र होने के 62 साल बाद भी भारतीय जनता के साथ जो महत्वपूर्ण समस्याएँ हैं
उनमें सबसे महत्वपूर्ण समस्याएँ सामाजिक विषमता और भाषा ही हैं। भारत विभाजन का एक
कारण धर्म रहा है, लेकिन भाषा, समाज और संस्कृति ने भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान
दिया हैं। इसे हमें नहीं भूलना चाहिए क्योंकि यही धर्म की महत्वपूर्ण कड़ियाँ हैं|
इसके बावजूद आज़ादी के 62 साल बाद भी संघटित भारत की एक राष्ट्रभाषा नहीं है। भारतीय
संस्कृति पर विचार किया जाए तो “भारतीय संस्कृति मनुष्य के
विचारों एवं व्यवहारों के प्रतिमानों को इंगित करती है। इसके अंर्तगत मूल्य, विश्वास,
आधार संहिता, राजनैतिक प्रतिमान तथा आर्थिक संगठन भी शामिल है।”[1] इन मूल्यों के आधार पर भारतीय समाज व्यवस्था को संस्कृति और शिक्षा में
बाँट कर देखा जाये तो स्पष्ट हो जाएगा कि समाज, संस्कृति, शिक्षा में
किस प्रकार संबंध होता है, जिसमें भाषा का योगदान भी महत्वपूर्ण होता है।
भारतीय परिवेश में जब हम शिक्षा की बात करते हैं तो भारत
में “विद्या जीवन का अत्यंत महत्वपूर्ण-वस्तुत: मूलभूत साधन थी;
परन्तु वह साधन ही रही साध्य कभी नहीं बनी।”[2] जिससे केवल भारतीय शिक्षा व्यवस्था में ही नहीं बल्कि सामाज व्यवस्था
में भी कई त्रुटियाँ रहीं हैं। जिसका परिणाम हमें संस्कृति पर भी दिखाई पड़ता है।
आज समाज व्यवस्था और शिक्षा को जोड़कर देखा जाए तो “मानव की
प्रवृत्तियाँ संस्कार से असंस्कार की ओर बढ़ रही हैं। इसका एक मात्र कारण है
आधुनिक विज्ञान, राजनीति, और संस्कृति में सामंजस्य का अभाव।”[3] शिक्षा संस्थानों का व्यवसायीकरण हो चुका है और ज्ञान का माध्यम केवल एक
ही भाषा को माना जा रहा है। जिसके विपरीत परिणाम भी समाज को झेलने पड़ रहे हैं।
भारतीय आधुनिक जगत में जो समस्याएँ सामने आ रही हैं उसमें हमारी शिक्षा व्यवस्था,
नवीनतम रूढ़ होती संस्कृति और समाजिक विषमता ही एकमेव कारण है। जिसके लिए किसी एक
को दोषी मानना पूर्णत: गलत होगा। क्योंकि विचारक उडवर्थ एवं सदरलैंड के अनुसार “किसी भी राष्ट्र की संस्कृति उसकी सामुदायिक विरासत है। वह
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित की जाती है।”[4] लेकिन आधुनिक भारतीय संस्कृति को देखा जाए तो उसमें जो बदलाव आया है
उसमें त्रुटी केवल संस्कृति हस्तांतरित करने वाले वरिष्ठों से ही नहीं हुई बल्कि
संस्कृति सीखने वाले कनिष्ठों से भी हुई है। इस समस्या को समाप्त करने के लिए इसपर
आत्ममंथन जरुरी है, जिसमें भाषा, समाज, संस्कृति और शिक्षा में होने वाले
अंत:संबधों की समस्याओं का समाधान भी छुपा हुआ हैं। इस संकल्पना को आगे बढ़ाने के
लिए यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा की भाषा, समाज, संस्कृति, और शिक्षा की क्या
परिभाषाऐं दी गई है।
भाषा:- ब्लॉक एवं ट्रेगर(Bloch and Trager)-“भाषा मनुष्य की वागेन्द्रियों
से उत्पन्न यादृच्छिक एवं रुढ़ि ध्वनि प्रतीकों की ऐसी व्यवस्था है जिसके द्वारा
एक भाषा समुदाय के सदस्य परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।”[5](A lagnauge is a system of arbitary vocal
symbols by means of which a social group co-operates.)
संस्कृति:-“संस्कृति वह जटिल इकाई है
जिसमें ज्ञान निश्चय, कला, नैतिकता, कानून, रीति-रिवाज तथा मनुष्य द्वारा समाज का
सदस्य होने के नाते आर्जित बहुत सी योग्यताएँ तथा आदतें हैं। - ई.वी.टेलर”[6]
समाज :- “A group of humans broadly distinguished from other groups by mutual
interests, participation in characteristic relationships, shared institutions,
and a common culture.”[8]
साधारणत: यहीं परिभाषाऐं भाषा, समाज, संस्कृति और
शिक्षा के संबंध में दी जाती हैं। लेकिन हमें इन परिभाषाओं की ओर देखे बगैर विचार
करने की आवश्यकता है, क्योंकि समाज, संस्कृति, शिक्षा, और भाषा में जो अतं:संबध
जुड़ा है वह इन परिभाषाओं से भी विस्तृत संकल्पना में परिलक्षित होता है। जैसे:-
भाषा दो समाजों के बीच संप्रेषण का साधन है। परंतु यह साधन किस प्रकार शिक्षा
प्राप्त करने, एक संस्कृति बनाने में और समाज को बनाने में किस प्रकार से एक
समाजिक भूमिका निभाती है इस विषय पर चर्चा करना है।
भाषा और समाज
भाषाविज्ञान में जब भाषा की उत्पत्ति के संबंध में सिद्धांत
दिए जा रहे थे तो इस विषय पर भी चर्चा हुई थी कि पहले भाषा ने जन्म लिया या पहले
समाज का निर्माण हुआ। कुछ विद्वानों का मानना था कि ’भाषा’ समाज में उपयोग लाया
जाने वाला साधन है इसलिए समाज का निर्माण पहले हुआ होगा और जब उस समाज को संप्रेषण
की आवश्यकता निर्माण हुई होगी तो उसने संकेतों के माध्यम से भाषा को बनाया। लेकिन
कुछ विद्वान मानते हैं कि मानव पहले समूहों में रहता था। वह पूर्णत: अन्य पशुओं की
तरह जंगल में रहकर अपना जीवन व्यतीत करता था। उसके पास ना ही संस्कृति थी और ना ही
जीवन व्यवहार के कोई अन्य नियम थे। एक पूर्ण समाज उसी को कह सकते है जिसके पास एक
संस्कृति हो जीवन व्यवहार के नियम हो एक भाषा हो। इसलिए उनका मानना है कि जब मानव
समूहों में रहते थे तो वे एक दूसरे को जंगलों में मिलने के उपरान्त आपस में संप्रेषण
नहीं कर पाते थे। ऐसे समय वे एक दूसरे के विरोधी भी हो जाते थे, इसलिए उन्होंने
पहले भाषा को विकसित करने का काम किया। जिसके माध्यम से उन्होंने उस समुदाय को
संप्रेषित जीवन व्यवहार के नियमों में बाँध कर एक संस्कृति विकसित की, इस प्रकार
देखा जाए तो पहले भाषा का निर्माण हुआ और बाद में समाज का। भाषा वैज्ञानिक और
समाजशास्त्री एक दूसरे से सहमत हों न हों लेकिन यह तो स्पष्ट है कि भाषा और समाज
के निर्माण में दोनों एक दूसरे के सहायक रहे जिससे केवल भाषा और समाज ही नहीं
संस्कृति का भी विकास हुआ। इस प्रकार भाषा और समाज का एक दूसरे से उनकी उत्पत्ति
से ही संबंध रहा है जिसके कारण उनकी परिभाषाओं में भी एक दूसरे को स्वीकारे बिना
भाषा और समाज की परिभाषाएँ पूर्ण नहीं होती।
समाज और संस्कृति की बात की जाए तो समाज और संस्कृति में ऐसा गहरा
संबंध है जैसे चोली और दामन का होता है। उनका एक दूसरे के बिना संपूर्ण होना कभी
संभव नहीं है। जैसे कोई व्यक्ति समाज के बिना नहीं रह सकता, उसी प्रकार वह समाज के
सांस्कृतिक नियमों से परिपूर्ण हुए बिना संपूर्ण नहीं माना जाएगा। व्यक्ति का
अधिकतर समय समाज में ही गुजरता है, वह समाज में रहकर ही समाज में घटित-घटनाओं के
माध्यम में नित-नवीन व्यवहार हर रोज सीखता रहता है। इस प्रक्रिया के दौरान भी वह
समाज द्वारा बनाए गए सांस्कृतिक नियमों का पालन बराबर करता रहता है। क्योंकि“संस्कृति मानव की सामुदायिक सौंदर्य मूलक उपलब्धि है।
संस्कृति के तत्वों से शिक्षा का स्वरुप किसी समुदाय में बनता है जहाँ संस्कृति एक
समुदाय की पीढ़ीयों से परिष्कृत-विकसित जीवन शैली है, वहाँ संस्कृति उसे
परिष्कृत-विकसित करने में सहायक नहीं, अपरिहार्य अंग है।” इस
कारण समाज और संस्कृति अन्य घटकों से अधिक महत्वपूर्ण भी हैं, इनके बगैर भाषा और
शिक्षा पर विचार करना भी कठिन होगा।
भारतीय उपमहाद्बीप में जिस प्रकार हजारों भाषाएँ हैं उसी
प्रकार कई संस्कृतियाँ और समाज भी हैं। यह संस्कृतियाँ धर्म और जातियों में बंटी
हुई हैं, ये धर्म, जातियाँ अपनी-अपनी संस्कृति को सबसे प्राचीन और श्रेष्ठ बनाने
में लगी हुई हैं। लेकिन भारत का सामाजिक परिवेश अनुकूल होने के कारण शांति बनी हुई
है। यह एक विकसित संस्कृति और समाज की विशेषता मान सकते हैं, जहाँ हजारों भाषाऐं,
समाज और धर्म एक साथ रहते हैं। यह कार्य पहले भी शिक्षा के माध्यम से चलता आ रहा
है और आज भी शिक्षा ही उसका माध्यम बनी हुई है। जिसके कारण भारत सरकार ने तीन
भाषाओं के माध्यम से भारतीय बच्चों को पढ़ाई देने का प्रावधान किया है। विष्णु
प्रभाकर ने भी समाज, संस्कृति और शिक्षा के संदर्भ में कहा है कि “शिक्षा वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा वयस्क होता हुआ
व्यक्ति समूह के जीवन और संस्कृति में प्रवेश करता है।” अब सवाल यह उठता है कि क्या वर्तमान शिक्षा प्रणाली हमें वह संस्कार दे
पा रही है जिसके लिए हमें विश्व में जाना जाता है। अगर वर्तमान शिक्षा प्रणाली
हमें वह संस्कार नहीं दे पा रही है तो हमें इस शिक्षा को आगे बढ़ाना चाहिए, या
नहीं ? क्योंकि जब किसी व्यक्ति या समाज का मूल्यांकन किया जाता है तो शिक्षा और
भाषा से अधिक संस्कार और संस्कृति को परखा जाता है। जिससे उस समाज और देश को पहचान
प्राप्त होती है। यह आज की शिक्षा व्यवस्था पर उत्पन्न मुख्य प्रश्न है। यह घटक ही
समाज और संस्कृति से गहन संबंध को परिलक्षित करते हैं।
आज भारत में ही नहीं विश्व के प्रगतिशील देशों ने भी विकृत
मानसिकता बना ली है संस्कृति को बचाने का नाम देकर संस्कृति को ही “संस्कृति उद्योग” बना दिया गया है। जिसके कारण
सभी संस्कृतियाँ बाज़ार में टंगी मिल जाऐंगी। जबकि कुछ विद्वानों का स्पष्ट मत है
कि “संस्कृति उद्योग परिष्कार नहीं करता वह दमन करता है। कला के
कार्य हठयोग की तरह हैं और वहाँ लज्जा और अपराध बोध की गुंजाईश नहीं है संस्कृति
उद्योग अश्लील और लज्जालु किस्म का है।”[9] संस्कृति उद्योग समाज की उपज है परन्तु किसी
संस्कारित\प्रगतिशील समाज की उपज नहीं है। वह उस समाज की उपज है जिसे केवल फायदा
दिखाई पड़ता है। जिसके लिए संस्कार और मूल्यों का कोई महत्व नहीं। वह शिक्षा
व्यवस्था का हिस्सा होकर भी यह सीखता है, क्योंकि समाज में शिक्षा व्यवस्था भी
पूर्णत: बदल गई है। शिक्षा व्यवस्था का भी बाजारीकरण हो गया है और समाज में वही
आगे बढ़ पा रहा है जो नई शिक्षा व्यवस्था को अपनाए। यही आज के समाज की संस्कृति भी
बन गई है।
संस्कृति और भाषा
“संस्कृति
मनुष्य की बौद्धिक और नैतिक अवधारणाओं को प्रमाणित ही नहीं करती है, उनका निर्माण
भी करती है, लेकिन यह सब कहकर हम विज्ञान की महत्ता को अस्वीकार नहीं कर सकते। यह
सब करने की क्षमता उसमें भी उतनी ही है।” इस प्रक्रिया में भाषा और
संस्कृति का जो संबंध बनता है वह महत्वपूर्ण है। क्या वे समाज बौद्धिक और नैतिक
सिद्ध हुए हैं जिनकी भाषा असमृद्ध मानी गई है? क्या उन समाजों में विज्ञान में
प्रगति की है? जो समृद्ध भाषाओं ने अपने-अपने विषयों में की है। इससे स्पष्ट होता
है कि विज्ञान की निर्भरता और संस्कृति का विकास भाषा के बिना नहीं हो सकता। किसी
समाज की संस्कृति अति रुढ़िवादी हो, देवी-देवता और भूत-प्रेत पर विश्वास करने वाली
हो तो वह शिक्षा के माध्यम से सीखे गए वैज्ञानिक रुपों को नकार देगी। कुछ समाज
सिद्धांतवादी होने के बाद भी भाषा की असमृद्धता के कारण वैज्ञानिक सिद्धांतो को
समझने में असमर्थ होते हैं। इस तरह देखा जाए तो संस्कृति और समाज के विकास में
भाषा का स्थान महत्वपूर्ण होता है। ऐसी स्थिति में केवल संस्कृति को ही विकसित
करना, या केवल भाषा को ही समृद्ध करना निष्क्रिय कार्य सिद्ध होगा इसके लिए हमें
एक विकसित समाज के निर्माण के लिए संस्कृति और भाषा दोनों को समानांतर रुप से
विकसित करने की आवश्यकता है। भारतीय परिवेश में दोनों कार्य भिन्न दिशा में हो रहे
हैं संस्कृति के विकास के नाम पर संस्कृति को बदला जा रहा है। जबकि संस्कृति के
विकास की परिभाषा भिन्न होती है। संस्कृति के विकास की परिभाषा में उसी संस्कृति
को विकसित किया जाता है ना की उसे पूर्णत: बदला जाता है। भाषा के संदर्भ में यही
हो रहा है, भाषा को समृद्ध करने की बज़ाय एक विकसित भाषा का वर्चस्व निर्माण किया
जा रहा है। जिसे विविध भाषाओं की समस्या के नाम पर भाषा की मूल समस्या को दबाया जा
रहा है। आज भारतीय परिवेश जिस दिशा में जा रहा है उससे स्पष्ट हो रहा है कि भारतीय
परिवेश अपनी मूल संस्कृति से दूर जा रहा है। जिसे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
भाषा, संस्कृति और शिक्षा
जीरोम ब्रुनर कहते हैं कि “बच्चे
अपने समाज और संस्कृति को ग्रहण करते हुए बड़े होते है, समाज व संस्कृति उनके
सीखने के स्वभाव को निर्धारित करती है। बहुत हद तक उसके इस स्वभाव से निर्धारित
होता है कि बच्चा क्या सीखेगा और किन बातों को सीखना उसके लिए आसान होगा। एक
शिक्षक के लिए यह महत्वपूर्ण बातें हैं।”[10]संस्कृति और शिक्षा के अत:संबंध में भाषा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह एक
साधरण बात है, अगर बच्चे को उसकी मातृभाषा में पढ़ाया जाए या मार्गदर्शन किया जाए
तो वह उसकी रुचि के अनुसार चुने गये विषय में अधिक पारंगत होगा। इसके बजाय बच्चे
को उसकी मातृभाषा में न पढ़ाया जाए और अन्य भाषा में मार्गदर्शन किया जाए तो उसकी
रुचि विषय की जानकारी हासिल करने से हटकर अन्य भाषा को समझने में लग जाएगी। इस
अंतरद्वंद से विषय में निपुण होने की बच्चे की संभावनाएँ धूमिल हो जाती है। कुछ
लोगों का यह भी मानना हैं कि बच्चे की स्मरण शक्ति वयस्कों से अधिक होती हैं इसलिए
बच्चा एक से अधिक भाषाओं को आसानी से ग्रहण कर सकता है। परंतु यह बात अधिक
अनुसंधानिक होते हुए भी तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि बच्चे के स्कूल में प्रवेश लेने
का उद्देश्य विषय की जानकारी पाकर उस विषय में निपुण होना होता है, न की अन्य भाषा
सीखने के उद्देश्य से स्कूल में प्रवेश लेता है। अगर स्कूल में प्रवेश लेने का
उद्देश्य केवल अन्य भाषा सीखना हो तो बच्चों को अवश्य तीन भाषाओं की जानकारी दी जा
सकती है। परंतु विषय की जानकारी के लिए बच्चों की मातृभाषा में ही शिक्षा दी जानी
चाहिए। इसी उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए भारतीय संविधान ने कुछ सूचनाएँ दी हैं।
“शिक्षा
मनुष्य की आंतरिक क्षमता तथा उसके व्यक्तित्व को विकसित करने की प्रक्रिया है। यह
उसे समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए समाजीकृत करती है तथा एक उत्तरदायी
नागरिक एवं समाज का सक्रिय सदस्य बनाने के लिए व्यक्ति को आवश्यक ज्ञान तथा कौशल
उपलबद्ध कराती है सामाजीकरण की एक प्रक्रिया के अंग के रुप में यह नए सदस्यों के
मन में समाज की सांस्कृतिक विरासत मानकों एवं मूल्यों को आत्मसात कराती है।
सामाजीकरण यह प्राथमिक तथा अनौपचारिक प्रक्रिया है। जिसके अंतर्गत एक व्यक्ति
दूसरों की सामजिक अपेक्षाओं के अनुरुप अपने व्यवहारों को ढालता है।”[11] इस प्रक्रिया में वह पूर्णत: समाज के संस्कृतिक और
व्यावहारिक नियमों को समझने का प्रयास करता है। उद्देश्य की दृष्टि से भारत में शिक्षा की परिभाषा कुछ इस प्रकार से दी जाती थी। “विद्या के उद्देश्य दो थे: तात्विक दृष्टि से सत्या-सत्य का
ज्ञान और व्यावहारिक दृष्टि से कर्त्तव्याकर्तव्य का ज्ञान”[12] जिसके आधार से मानव अपने जीवन विकास में समन्वय करता था और
भाव, ज्ञान, कर्मवृत्ति को मौलिक बनाता था। इसका उपयोग वह समाज के कल्याण में ही
लगाता था। जिससे वह शिक्षा ग्रहण से पहले यही मान लेता कि समाज का कल्याण ही
शिक्षा का अंतिम उद्देश्य है। आज शिक्षा की परिभाषा भी बदल कई है। शिक्षा का
उद्देश्य समाज से दूर होकर स्वयं के विकास और विशिष्ट वर्ग के विकास के लिए शिक्षा
यह हो चुकी है। देखा जाए तो“समान्यत: शिक्षा व्यवस्था के
चार प्रमुख तंत्र माने गए हैं। १.आधारभूत ज्ञान २.प्रसारण की साधन सामग्री ३.
शिक्षक ४.शिक्षा अधिकारी”[13] आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में भी शिक्षा के इन तंत्रों
में बदलाव हुवा है। आज एक ओर जहाँ आधुनिक\प्राइवेट शिक्षा संस्थान नवीन
तकनीकी संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं। वहीं सरकारी शिक्षा संस्थान पुराने तंत्र पर
ही टिकी हुई है। जिससे शिक्षा की प्रगति में ही नहीं संस्कार और ज्ञान में भी फर्क
दिखाई दे रहा हैं। इन्हीं आधुनिक शिक्षा संस्थानों के कारण शिक्षा और भाषा में
संघर्ष की स्थिति निर्माण हो गयी है। एक ओर अंग्रेजी शिक्षा संस्थाओं की संख्या
बढ़ रही है वहीं क्षेत्रीय भाषाओं की संख्या तेजी से घट रही हैं। जिसपर न सरकार का
नियंत्रण है और न ही शिक्षा संस्थाओं का। यह निजीकरण की उपज है जिसपर सरकार का
नियंत्रण आवश्यक है।
भाषा, समाज और संस्कृति का शिक्षा के किन प्रमुख घटकों पर
प्रभाव होता है इसे स्पष्ट रुप से निम्न मदों के माध्यम से देखा जा सकता हैं। 1. एकात्मकता(Unity) 2.तटस्थता(Neutrality) 3. राजनैतिक सामर्थ्य(Political Power)
4.आधुनिकीकरण(Modernization)
5. A)वैयक्तिक कारण(Individual
Factors) B)धार्मिक
कारण(Individual Factors) C)सामाजिक कारण(Individual
Factors) D)सामूदायिक कारण(Individual
Factors) 6.उच्च शिक्षा(Higher
Education) 7.प्रौद्योगिकीय ज्ञान की
उपलब्धता(Accessibility to Technological Information) 8.द्बितीय भाषा संप्रेषण(Second Language
Communication) 10. भाषा की स्वीकार्यता (Choosing the Language),11. सामग्री की उपलब्धता (Accessibility of
Material) इन सभी
घटकों पर विचार किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि शिक्षा व्यवस्था में भाषा का कितना
महत्व है, भाषा इस स्तर पर आकर केवल संप्रेषण के साधन तक ही सीमित नहीं रह जाती वह
एकात्मता और राष्ट्रीय भावना तक बन सकती है। यह समाज की स्वीकार्यता पर निर्भर है,
जिसे केवल एक समाज की वस्तु बनाकर सीमित न रखा जाए और उसे एक संस्कृति का रुप दिया
जाए तो वैश्विक ज्ञान का साधन भी बन सकती है। इसी के कारण आज भारत ही नहीं वैश्विक
शिक्षा व्यवस्था परंपरागत रुप में नहीं रही उसका पूर्णत: आधुनिकीकरण हो गया जिसमें
निम्न शिक्षा व्यवस्थाएँ हैं।
आधुनिक शिक्षा व्यवस्थाएँ : - 1. प्रौढ़ शिक्षा(Adult Education) 2. दूरस्थ शिक्षा(Distance Educationi) 3. ई-शिक्षा(E-Learning) 4.शैक्षिक एनीमेशन(Educational
Animation) 5.शैक्षिक सॉफ्टवेयर(Educational
Software) 6. ऑन लाइन शिक्षण समुदाय(Online
Learning) 7.विशेष शिक्षा(Special
Education) 8.व्यावसायिक शिक्षा(Vocational
Education) इस पद्धति का उपयोग कर शिक्षा प्राप्त की जा सकती है।
इस आधुनिक शिक्षा पद्धति ने अंशत: जीरोम ब्रुनर के सिद्धांत को भी अपनाया है
वे कहते हैं कि “शिक्षक के लिए यह जानना जरुरी है कि उसके विद्यार्थी क्या
सोचते है, कैसे समझते हैं और उन्हें किस तरह मदद दी जा सकती है। उन्होंने इस
पद्धति को लोक शिक्षा पद्धति(Folk Pedagogy) कहा है।”[14] अब यह शिक्षा पद्धति केवल एक व्यवस्था के रुप में ही नहीं स्वीकारी जा
रही बल्कि यह एक संस्कृति बनती जा रही है। जिसके माध्यम से पठन-पाठन की
प्रक्रिया सुचारू रूप से कार्य कर रही है और इसका लाखों विद्यार्थियों को लाभ हो
रहा हैं। यह समाज में हुए बदलाव का परिणाम, समाज की स्वीकार्यता और तकनीकी वस्तुओं
के विकास के कारण हुआ है जिसका शिक्षा व्यवस्था पर स्पष्ट प्रभाव दर्शाती है।
भारत में संस्कृति और महिलाओं की शिक्षा
“महिलाओं
के लिए शिक्षा की जरुरत किस भाषा, किस तर्क या किस बोली में अभिव्यक्त की गई।
बेहतर पत्नी और माँ के निर्माण के लिए महिला शिक्षा एक मध्यवर्गीय हिंदू पहचान और
सभ्यता निर्मित करने वाले एक नैतिक कर्म के रुप में सामने आयी।”[15] जबकि स्त्री शिक्षा एक राष्ट्रीय निवेश था जिसका मकसद उन्हें एक
अच्छी गृहणी, ज्ञान की प्राप्ति, सामाजिक सहचरिता, व्यवसायिक गति की प्राप्ति,
समानता का अधिकार और अपने विवाहित जीवन में एक उत्तम शीलवान सहचरी बनाना था। परंतु
यह संकल्पना शिक्षा व्यवस्था निर्माण के प्राथमिक काल में पूर्ण नहीं हो पा रही
थी। क्योंकि एक ओर हिंदू पंडितों का स्त्री शिक्षा पर अंदरुनी विरोध कायम था। “बनारस में स्त्री शिक्षा को लेकर कोई हलचल नहीं थी,
इलाहाबाद में उदासीनता दिखी, गोरखपुर में प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ सामने आयीं और
लखनऊ में खुले तौर पर उग्र विरोध सामने आया।”[16] एक ओर पुरुषों ने पश्चिमी शिक्षा के साथ संस्कृति का वहन शुरु किया था।
पोशाख और खान-पान में यह सहज दिखाई दे रहे था। वहीं स्त्रियों पर अब भी संस्कृति
की वाहक का प्रतीक बनाकर रखा गया था। लेकिन आज कुछ बड़े शहरों से यह प्रथा भी जा
रही है। जो आधुनिकता की ओर बढ़ने का संकेत है। लेकिन आज भी कुछ हठधर्मी पुरुष
संस्कृति के वाहक संस्कृति का अवमूल्यन और घरों के भीतर की निजता बनाए रखने के के
अपने परंपरागत ढाँचे को आगे बढ़ाना चाहते है। जिसका प्रथम उदाहरण यह था कि “पुरुषों के कार्य क्षेत्र में समाज में समाजहित
धर्मशास्त्र, कानून व चिकित्सा जैसे विषयों को महत्व दिया गया, जबकि स्त्रियों की
दुनिया में बच्चों का लालन-पालन, पाकशास्त्र और सफाई जैसे कम महत्वपूर्ण विषयों का
वर्चस्व रहा था।”[17] इस बीच यह भी बहस हुई की धर्म के आधार पर स्त्रियों को किस प्रकार
शिक्षा दी जानी चाहिए हिंदू स्त्री को किस प्रकार की शिक्षा दी जाए और मुस्लिम
महिलाओं को किस प्रकार की शिक्षा दी जाए। शिक्षा के क्षेत्र में धर्म को बढ़ावा
दिया गया जिसके कारण सांस्कृतिक पक्षों को पूर्ण करने के लिए शिक्षा व्यवस्था भी
संस्कृति, भाषा और धर्मों का केंद्र बन गई। जिसका प्रभाव हमें आज भी दिखाई देता
है। इस धार्मिक भेदभाव की नीति को साहित्य, कला और धार्मिक शिक्षण में तो जरूर
स्थान मिला लेकिन विज्ञान, तकनीकी और कानूनी शिक्षा में समानता देना आवश्यक ही था।
स्त्री शिक्षा में भी जो समस्याएँ उत्पन्न हुई वह सांस्कृतिक और भाषिक समस्याओं के
कारण। जिसकी जड़ें आज भी उतनी ही मजबूत हैं जितनी पहले थीं। जिसे भारतीय संविधान
के इस अनुच्छेद का दुरूपयोग कर अधिक प्रबल किया जा रहा है जो कहता है कि “भारतीय संविधान के ४५वे अनुच्छेद के अनुसार १४ वर्ष तक की
उम्र के सभी बच्चों को राज्य मुक्त एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा। अनुच्छेद ३०
घोषणा करता है किसी भी अल्पसंख्यक को चाहे वे धर्म के आधार पर हों या भाषा के अपनी
पसंद के शिक्षा संस्थानों की स्थापना या प्रबंधन करने का अधिकार है।”[18]
आज भारत सरकार शिक्षा पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है।
जिसमें सरकारी स्कूलों के साथ निजी शिक्षा संस्थानों को बढ़ावा देने का कार्य हो
रहा है। इसी बीच शिक्षा का अधिकार अधिनियम भी लागू कर दिया गया है, जो हर बच्चे को
शिक्षा देने की बात करता है। वैश्वीकरण की नवउदारवादी नीति के आधार पर बने इस
सरकारी बिल को परोपकार की नीति माना जा सकता है। क्योंकि वह एक ओर सभी बच्चों को
शिक्षा देने की बात करता है तो दूसरी ओर निजी स्कूलों को बढ़ावा देती है जहाँ
लाखों रुपये लेकर प्रवेश दिया जा रहा है। इस नीति को बनाए रखने के लिए अर्थिक रुप
से कमजोर वर्गों और वंचित समुदायों के बच्चों को २५ फीसदी सीटे आरक्षित करने पर जोर
देती है। लेकिन भारत का केवल २५ प्रतिशत हिस्सा शिक्षा से वंचित नहीं हैं। वंचितों
और अशिक्षित लोगों का ५० प्रतिशत हिस्सा ऐसा है जो अपनी पूरी शिक्षा कभी प्राप्त
नहीं करता। अत: भारतीय शिक्षा व्यवस्था में हो रहा बदलाव केवल एक सत्ता परिवर्तन
की बात नहीं है यह एक भाषा, समाज और संस्कृति परिवर्तन की नीति है।
उच्च शिक्षा को देखा जाए तो भारत सरकार विदेशी
विश्वविद्यालयों को प्रोत्साहन दे रही है। इसमें भी भारत कि शिक्षा नीति को समग्र
दृष्टिकोण से देखा जाना आवश्यक है। क्या इन विदेशी शिक्षा संस्थानों में प्रवेश
लेने वाले बच्चों को विदेशी भाषा, समाज, संस्कृति और शिक्षा व्यवस्था के अनुसार ही
अपने आप को ढालना होगा? अगर इस प्रश्न का उत्तर हाँ है तो ये विश्वविद्यालय केवल
भारत की शिक्षा व्यवस्था में ही नहीं भाषा, समाज और संस्कृति में अंर्तविरोध
निर्माण करेंगे।
संदर्भ
[15] तद्भव(पत्रिका-विशिष्ट संचयन) – चाहे लक्ष अनचाहे परिणाम-औपनिवेशिक उत्तर भारत
में स्त्री शिक्षा और पढ़ने का भय- चारु गुप्ता पृष्ठ - 43
[16] तद्भव(पत्रिका-विशिष्ट संचयन) –
चाहे लक्ष अनचाहे परिणाम-औपनिवेशिक उत्तर भारत में स्त्री शिक्षा और पढ़ने का भय-
चारु गुप्ता पृष्ठ -44
[17]तद्भव(पत्रिका-विशिष्ट संचयन) – चाहे लक्ष अनचाहे
परिणाम-औपनिवेशिक उत्तर भारत में स्त्री शिक्षा और पढ़ने का भय- चारु गुप्ता पृष्ठ
- 49
[19] Language, Literature and Education in
Multicultural Societies: Collaborative Research on Africa, Edited by Kenneth Harrow and Kizitus Mpoche,
Cambridge Scholars Publishing 2008
[20] Language Planning In Education (Article On
Internet)
[21] Language
policy, language education, language rights: Indigenous, immigrant, and
international perspectives Nancyh.Hornberger, Graduate School of Education, University of Pennsylvania
[22] The
Nature of Design Ecology, Culture, and Human Intention David W. Orr, 2002,
Oxford University Press
[गवेषणा, त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका (Gaveshna Magazine),
केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, हिंदी संस्थान मार्ग, आगरा-282005, उ.प्र. 2011. में प्रकाशित लेख]
केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, हिंदी संस्थान मार्ग, आगरा-282005, उ.प्र. 2011. में प्रकाशित लेख]
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